=> पत्रकारों कब सुधरोगे, ईगो के आगे समझ की औकात नहीं है क्या?

पुलिस, माफिया, बदमाश के साथ साथ जनता में भी पत्रकारों के प्रति पैदा हो रहे रोष का असली कारण कोई जाने की कोशिस क्यों नहीं करता?

किसी भीड़ भरे महानगर के लिए बहुत बड़ा मामला नहीं था शायद लेकिन जो हुआ उसका संकेत बहुत बड़ा है। एक नेशनल न्यूज चैनल का पत्रकार और एक दिल्ली एनसीआर चैनल का पत्रकार दोनों एक एसाइनमेन्ट की स्टोरी करने जाते हैं। एसाइनमेन्ट होता है कि दिल्ली में जिन घरों की दीवारों में दरार है उन पर कोई खबर करनी होगी। 
               किसी भीड़ भरे महानगर के लिए बहुत बड़ा मामला नहीं था शायद लेकिन जो हुआ उसका संकेत बहुत बड़ा है। एक नेशनल न्यूज चैनल का पत्रकार और एक दिल्ली एनसीआर चैनल का पत्रकार दोनों एक एसाइनमेन्ट की स्टोरी करने जाते हैं। एसाइनमेन्ट होता है कि दिल्ली में जिन घरों की दीवारों में दरार है उन पर कोई खबर करनी होगी। बारिश के दिनों में ऐसी खबरें जरूर लोगों पर मंडराते अनजाने संकट से बचा सकती हैं। वे दिल्ली के एक कामर्शियल इलाके में पहुंचते हैं और एक नयी बन रही बिल्डिंग के शाट्स लेने लगते हैं। इस बिल्डिंग के कारण बगल वाली बिल्डिंग की दीवार में दरार आ गयी है। हो सकता है बगल की बिल्डिंग वालों ने ही उन्हें यहां आने का टिप दिया हो। लेकिन यहीं सब गड़बड़ हो जाती है।

                   अचानक से नयी बन रही बिल्डिंग का बिल्डर वहां आता है और एक महिला आर्किटेक्ट, ठेकेदार और मजदूरों के साथ मिलकर पत्रकारों पर हमला करवा देता है। हमला करवाते वक्त वह जोर जोर से चिल्लाता है कि, "महिलाओं के साथ बदतमीजी करता है। महिलाओं के साथ बदतमीजी करता है।" यह बोलता जाता है और अपने मजदूरों के साथ उन्हें घसीटता जाता है। इसमें न्यूज नेशन वाले पत्रकार की दशा खराब थी। जिसको जहां से मौका मिल रहा था, उसे मार रहे थे। कुछ ने वहां पड़े फरसे सरिया तक उठा लिये कि आज काम तमाम कर देते हैं। हालांकि वे ऐसा नहीं कर पाये लेकिन ऐसे मौकों पर आमतौर पर तमाशाई बनी भीड़ सिर्फ तमाशा नहीं देखती है बल्कि वह भी इस पिटाई में हिस्सेदार होती है। जो मार नहीं रहे होते हैं वे या तो उकसा रहे होते हैं या फिर मूक समर्थन कर रहे होते हैं। और यह सब देश के किसी पिछड़े कस्बे या दूसरे दर्जे के शहर में नहीं बल्कि देश की राजधानी दिल्ली के एक कामर्शियल इलाके में हो रहा होता है।
                    दिखने में सामान्य सी यह घटना उतनी सामान्य नहीं है। इस असामान्य घटना का संकेत बड़ा है। एक पत्रकार का नाम संदीप चौहान है जो कि खुद को न्यूज नेशन का रिपोर्टर बता रहा था जबकि दूसरे पत्रकार का नाम संजय वर्मा था जो कि टोटल टीवी का रिपोर्टर था। दोनों ही पत्रकारों का कहना था कि वे एसाइनमेन्ट पर स्टोरी करने आये थे। वे दोनों कैमरे से शूट कर ही रहे थे कि इतने में मजदूरों ने बिल्डर को बुला लिया। बिल्डर ने आते ही छेड़खानी का माहौल बनाकर पीटना और पिटवाना शुरू कर दिया। न्यूज नेशन वाले रिपोर्टर संदीप चौहान को ज्यादा बुरी तरह मारा पीटा गया। हालांकि उन्हें कोई ऐसी गंभीर चोट नहीं आई कि जानलेवा हमला करार दिया जा सके लेकिन अगर कुछ देर ऐसा ही नजारा और रहता तो कुछ भी घटित हो सकता था। कुछ नहीं हुआ यह अच्छी बात है। लेकिन बुरी बात दूसरी है। बुरी बात यह है कि वहां मौजूद जनता ने बिल्डर, उसके मजदूरों को रोकने की बजाय उसे और मारने के लिए उकसाया। भीड़ को भला क्या गुस्सा था कि दो पिटते हुए लोगों को बचाने की बजाय और मारने के लिए उकसा रही थी?
                    चिंता की बात यही है। खासकर टीवी चैनलों के पत्रकारों के लिए। बिल्डर माफिया पुलिस और कारोबारी आपस में किस कदर मिले होते हैं यह बताने की जरूरत नहीं है। लेकिन ऐसे माहौल में पत्रकार की छवि भी बहुत ईमानदार कहां रह जाती है? दोनों पत्रकारों से पूछने पर कि ष्और कोई बात तो नहीं थी? उन्होंने साफ इंकार करते हुए कहा कि हम एसाइनमेन्ट पर स्टोरी करने आये थे। वे भले ही एसाइनमेन्ट पर स्टोरी करने आये थे, लेकिन इस घटना से एक बात साबित होती है कि टीवी कैमरे और गनमाइक अब कौतुहल पैदा नहीं करते बल्कि लोगों में रोष पैदा करते हैं। आम जन जिसका किसी खास मामले से कोई लेना देना नहीं होता वे भी स्वाभाविक तौर पर पत्रकार के साथ खड़ा होने की बजाय उसका साथ देते हैं जो वास्तव में गलत होता है। क्यों? क्या सिर्फ इसलिए कि वह पत्रकार है? क्या पत्रकार को सिर्फ पीट देने की ही जरूरत है क्योंकि ये लोग गलत शलत खबरें दिखाते रहते हैं?
                  कुछ तो है जो टीवी का पत्रकार जनता के बीच विरोधी पक्षकार बनता जा रहा है। मौके पर पहुंची पुलिस टीम ने दोनों पत्रकारों की शिकायत तो सुन ली लेकिन पुलिस ने स्थानीय दुकानदारों से पूछताछ शुरू की तो कोई यह कहने के लिए सामने नहीं आया कि उनके साथ मारपीट की गई है। आखिर ऐसा क्यों होता है कि कभी जिन पत्रकारों को अपने बीच पाकर लोग उन्हें हर तरह की मदद करने के लिए तैयार हो जाते थे, आज वही पत्रकार सरे राह पीट दिया जाता है और लोग पत्रकार के साथ सहानुभूति रखने की बजाय उसके साथ की गई कार्रवाई का मूक समर्थन करते हैं? कुछ तो है जिसके बारे में सबको सोचने की जरूरत है। खासकर टीवी के न्यूजरूम में बैठे बड़े ओहदेदारों को कि वे कौन सी पत्रकारिता कर रहे हैं कि उनकी बिरादरी के लोग इस तरह सरे राह पीट दिये जाते हैं और बचाने के लिए एक आदमी सामने नहीं आता है? सवाल किसी व्यक्ति या घटना का नहीं है। सवाल है उस संकेत का जो इस घटना से ऐसी घटनाओं के जरिए सामने आ रहा है। हाल के दिनों में ऐसी घटनाओं में बढ़त हो रही है। खुद को पत्रकार बताने पर लोग सम्मान की नजर से नहीं बल्कि हिकारत और नफरत की नजर से देखने लगे हैं। पत्रकार से या तो अब लोग डरते हैं नहीं तो उसे डराते हैं। यह दोनों ही स्थिति पत्रकार और जनता के रिश्ते के लिए विश्वासघाती हैं। कुछ उसी तरह जैसे नेता शब्द जनता के बीच गाली हो गया है। तो क्या अब पत्रकार भी गाली का दूसरा नाम बन गया है? अगर जनता ही उसे इस तरह खलनायक समझने लगी है तो उसे सोचने की जरूरत है कि वह काम किसके लिए कर रहा है? 

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