=> अथातो होली जिज्ञासा


                                      होली, बस्ती-बस्ती में हँसती सस्ती मस्ती का त्यौहार है। हम भारतवासियों का तो इस पर जन्मसिद्ध अधिकार है। आदिकाल से हमने कैसी-कैसी होलियाँ अपने तन पर झेली हैं। जब रंग नहीं मिलता था तो ख़ून की होलियाँ भी खेली हैं। वो तो शेयर की गिरावट की वजह से त्यौहार की तासीर बदल गई। रही-सही जमा पूँजी को आर्थिक मन्दी निगल गई। वर्ना एक ज़माना था जब लोग चन्दन और केसर से होली खेला करते थे। एक-दूसरे के ऊपर कीचड़ नहीं अबीर उड़ेला करते थे। इस धरती के अंग-अंग पर चंदन-केसर का रंग बहा है। इसीलिए अपने पदों में मीराबाई ने कहा है- 
चोवा चन्दण अरगजा म्हा, केसर णो गागर भरी री।
मीरा दासी गिरधर नागर, चेरी चरण धरी री।।
                                     हम तो पनघट के मीठे पानी से होली खेला करते थे। रंग के बर्तन खींच-खींच कर भरते थे। हम गंगा की गोदी के बाशिन्दे हैं। सौ हमलों के बाद अभी तक ज़िंदे हैं। ये अलग बात है हमारे बागों में अब कोई रंगीन फूल नहीं खिलता। होली के लिए पानी कहाँ से लाएँ ‘पीने’ को साफ पानी नहीं मिलता। आज हाथों में टेसू और पलाश नहीं हैं। मगर हम तनिक भी निराश नहीं हैं। हमें अपनी संस्कृति ऊपर उठानी है। त्यौहारों की परम्परा बचानी है। इसलिए हिन्दुस्तान दूसरी राहों पर चल दिया। रंगों से खेलने का तरीका ही बदल दिया। लोगों ने अपना पुराना साहित्य टटोला। उपेक्षित पड़ा हुआ हर पृष्ठ खोला। अचानक अंधेरे में प्रकाश मिल गया। जिस्म का रोम-रोम हिल गया। एक पुरानी पुस्तक में सूरदास का गान लिखा मिल गया। भारत की समस्या का समाधान लिखा मिल गया
एक कोध गोविन्द ग्वाल सब, एक कोध ब्रज नारि।
छाड़ि सकुच सब देति परस्पर, अपनी भाई गारि।।
                                     पद का अर्थ बताने के लिए लोगों ने नेताजी को याद किया। जिन्होंने दो मिनट में उसका हिन्दी में अनुवाद किया। ‘‘खेलते-खेलते जब गोपियों-ग्वालों का रंग समाप्त हो गया। सारे ब्रज में संकट और भय व्याप्त हो गया। तो सब ने शर्म-संकोच छोड़ दिया। मर्यादा का हर बंधन तोड़ दिया। ग्वाले हारे नहीं, गोपियाँ भी होली खेलीं। रंग की जगह इक-दूजे पर गालियाँ उड़ेलीं।’’ लोगों ने नेताजी को पलकों पर बिठाया। सबको ये सुन्दर अनुवाद बहुत भाया। नेताजी ने यहीं पर पीछा नहीं छोड़ा। अपनी तरफ से भी साहित्य जोड़ा। वो बोले-केवल ब्रज में ही नहीं अयोध्या ने भी गालियों पर नर्तन किया है। सूरदास जी की बात का तुलसीदास जी ने भी समर्थन किया है। अयोध्या में भी गालियों का बड़ा महत्व रहा है। इसीलिए तुलसीदास जी ने भी कहा है-
चढ़े खरनि विदूषक स्वांग साजि।
करैं कटि निपट गई लाज भाजि।।
नर-नारि परसपर गारि देत।
सुन हँसत राम भइन समेत।।
                                     लोगों ने नेताजी के जयघोष का तूफान उठाया। उन्होंने झट-पट उसका भी अनुवाद बताया- ‘‘अयोध्या में लोग गधे पर बैठे और रंग बरसते रहे। नर-नारियों ने एक-दूसरे को गालियाँ दीं और राम हँसते रहे।’’ लोगों ने पहली बार उनके पाण्डित्य को जाना। उनकी विद्वता को पहचाना। नेताजी की बात में दम था। इस होली में ख़र्चा भी कम था। लगा जैसे किसी स्लम डाग को सौ करोड़ दे दिया। नेताजी ने आर्थिक मन्दी का तोड़ दे दिया। मगर गालियाँ देने के लिए शर्म छोड़नी ज़रूरी थी। इस मुश्किल से निपटने की तैयारी भी पूरी थी। मोहल्ले के एक छुटभैये ने कहा-चिन्ता है बेकार। मैं बताता हूँ इस समस्या का उपचार। हालाँकि हिन्दुस्तानियों को ‘दोबारा’ शर्म-त्याग की ज़रूरत नहीं है। मगर दूसरी और कोई सूरत नहीं है। मेरे दिमाग़ में आइडिया कुछ देर बाद आता है। अभी किसी शायर का शेर याद आता है-
गुलाबी गाल पर कुछ रंग मुझको भी जमाने दो।
मनाने दो मुझे भी प्रीत का त्यौहार होली में।।
यूँ भरकर जामे-मय गैरों को देते हो तो मुझको भी।
नशीली आँख दिखलाकर करो सरशार होली में।।
                                      छुटभैये ने आक्रोश में कहा। मुट्ठी बाँधकर पूरे जोश में कहा। मेरे दिमाग से ये समाधन कीजिए। मदिरा की बोतलों का सभी पान कीजिए। उसके बाद जिसे चाहे पकड़ लेना, जिसे चाहो छोड़ देना। हज़ार गालियाँ देना या सर फोड़ देना। किसी को कोई भी परेशानी नहीं आएगी। शर्म तो ख़ुद शर्माकर भाग जाएगी। लोगों ने तालियों से आकाश गुंजाया। सबको ये प्रस्ताव पसन्द आया। तब से हमारे संस्कार, होली की राह तकते हैं। लोग केवल शराब पीते और गालियाँ बकते हैं। तभी मोहल्ले का एक फौजी, चिल्लाया। आप यहीं ठहरो मैं अभी आया। सबकी आँखों में ख़ुमारी की पायल छनक रही थीं। फौजी बाहर आया तो हाथों में बोतल खनक रही थीं। दो मिनटों में मण्डली जम गई। कभी ‘व्हिस्की’ उठी कभी ‘रम’ गई। सभी जामो-बोतल को चूमने लगे। पीकर-बिना पिए झूमने लगे। तभी एक कुरकुले बूढ़े ने खाया भांग का गोला। धेती सम्भालता हुआ वो बोला- कोई ना कहे मुझसे, क्या बात करता हूँ। मैं आज कवि-सम्मेलन की शुरुआत करता हूँ। बूढ़ा मस्ती और उमंग में आ गया। एक पव्वे में तरंग में आ गया। उसने सबको आँखों-आँखों में तोला। और खड़ा होकर बोला-
तुम सब लोग गंवार हो, सुनो ये मेरी बात।
केवल मैं विद्वान हूँ, बाकी सब बदजात।।
                                     बूढ़े की हिम्मत देखकर गली का आवारा ‘हरिया’ झूम गया। बुढ़ापे में ये हौंसला देखकर उसका दिमाग़्ा घूम गया। उसने भी ताल ठोंकी। एक गिलास शराब और झौंकी। उसकी आँखों में नशा बहने लगा। वो खड़ा होकर कहने लगा-
पत्ते सारे झड़ गए, बची है सूखी डाल।
हममें सबसे मूर्ख है, ये बूढ़ा कंकाल।।
                                   कविताओं का दौर शुरु हो गया। भीड़ में इक शोर शुरु हो गया। लोग बजाने लगे ज़ोर-ज़ोर से तालियाँ। चारो तरपफ से आने लगीं शानदार गालियाँ। होली एक तरफ खड़ी डर रही थी। बोतल अपना काम कर रही थी। सभ्यता, शालीनता काई की तरह छंट गई। भीड़ देश की तरह दो हिस्सों में बंट गई। हंगामे और शोर का आगाज़ हो गया। नशे और गालियों का राज हो गया। लोगों में अचानक हाथापाई शुरु हो गईं। लात और घूँसों से धुलाई शुरु हो गई। ज़मीन पर बह गई जो भी बची थी प्याले में। अचानक नेताजी जा गिरे पास के गंदे नाले में। बेचारे अजीब मुसीबत में पँफस गए। गर्दन तक गंदे नाले में धँस गए। वो चिल्लाए-‘अरे गन्दी नाली के कीड़ों! ये मोहल्ला तो पूरा नर्क है। साफ-सफाई का तो बिल्कुल बेड़ा गर्क है। मेरे जीवन की नैया को सम्भालो। ज़ल्दी से मुझे बाहर निकालो। ‘हरिया’ ने अपना मुँह खोला। नशे में बिल्कुल सच बोला- ‘आज नाले में गिर गए तो गन्दगी याद आई। याद करो नाले की सफाई कब कराई? हम इस घुटन में जी-जीकर बेहाल हो गए। इसकी सफाई हुए दस साल हो गए। नेताजी घबराए। पुराने वादे याद आए। वास्तव में ये एक बहुत बड़ा फजीता था। साफ-सफाई के मुद्दे पर ही चुनाव जीता था।
                                नेताजी ने अपने होंठ खोले। और मरी हुई आवाज़ में बोले- ‘इस बार की ये होली नापसन्द आ रही है। पानी से ये कैसी दुर्गन्ध आ रही है? नेताजी का मन जब ज़्यादा घबराया। नशे में झूमता बूढ़ा पास आया। उसने अपना भांग का झोला खोला। और मुस्कराकर बोला- ‘जब से बने हो मेयर ये वक्त बह रहा है। नाले में कमेले का सड़ा रक्त बह रहा है। नेताजी की बुद्धि का संसार खुल गया। सोए हुए विवेक का हर द्वार खुल गया। उन्होंने चिल्लाकर कहा-अब मेरी पगड़ी ज़्यादा मत उछालो। सब ठीक करा दूँगा मुझे बाहर तो निकालो। लोगों को फिर से वादे पर विश्वास आया। एक बच्चा दौड़कर रस्सा उठा लाया। नेताजी कीचड़ में कुछ और गड़ गए। नाले के पुल पे जाकर कुछ लोग चढ़ गए। एक बूढ़े ने रस्सा उठाकर फैंक दिया पानी में। अचानक एक नया ट्विस्ट आ गया कहानी में। बुजुर्ग के हाथों से रस्सा छूट गया। लोगों के वजन से पुल टूट गया।
                               ये मुसीबत वास्तव में बड़ी थी। भीड़ भी नाले में पड़ी थी। अचानक उसी बुजुर्ग ने चुल्लू में कीचड़ भरा। उसका निशाना था एकदम ख़रा। उसने होली को इस अंदाज़ से खेला। सारा कीचड़ नेताजी के मुँह पर उड़ेला। बूढ़े का जिस्म पानी में लहराया। वो गुस्से में चिल्लाया- ‘तुमने इसके ठेके में भी कमीशन खाया था। ये पुल तुम्हीं ने तो बनवाया था। अब लोगों के गुस्से की कोई हद नहीं रही। भीड़ और नेताजी में सरहद नहीं रही। लोगों ने पीटना शुरु किया तो उनके बल जागे। वो पूरी ताकत से निकलकर भागे। एक बच्चे ने उनके पैर को जकड़ लिया। किनारे पर आकर उनको पकड़ लिया। कीचड़ सभी की नाक के नथुनों में भर गया। दुर्गन्ध यूँ उठी के नशा भी उतर गया। अफसोस सबको अपने इस हाल पर हुआ। फिर गाँव सारा एकजुट चैपाल पर हुआ।
                            नेताजी ने कहा-‘भगवान का शुक्र है मैं अभी तक ज़िंदा हूँ। अपने किए पर सच में शर्मिन्दा हूँ। अब मैं अपनी जनता को ख़ुशियों से भरूँगा। किया हुआ हर वादा पूरा करूँगा। लोगों ने कसम खाई की अब इज़्जत से जिएँगे। भूलकर भी होली पर शराब नहीं पिएँगे। पूरा गाँव होली को प्यार से भरेगा। कोई एक-दूसरे से झगड़ा नहीं करेगा। सबने कहा शराब, भांग, नशा सब बेकार है। होली केवल रंगों और मस्ती का त्यौहार है।
कुमार पंकज
कवि/गीतकार
49-ए, न्यू फ्रेण्ड्स कालोनी, मेरठ

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